Tuesday, October 27, 2015

स्पेस एक्स

अंतराष्ट्रीय अंतरिक्ष केंद्र की ओर निजी कंपनी की प्रथम उड़ान : स्पेस एक्स

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स्पेस एक्स फाल्कन 9 की उड़ान
स्पेस एक्स फाल्कन 9 की उड़ान
22 मई 2012, 7:44 UTC पर एक नया इतिहास रचा गया। पहली बार अंतरिक्ष मे एक निजी कंपनी का राकेट प्रक्षेपित किया गया। स्पेस एक्स का राकेट फाल्कन 9 अंतरिक्ष मे अपने साथ ड्रेगन कैपसूल को लेकर अंतराष्ट्रीय अंतरिक्ष केंद्र की ओर रवाना हो गया। इससे पहले की सभी अंतरिक्ष उड़ाने विभिन्न देशो की सरकारी कंपनीयों जैसे नासाइसरोरासकास्मोस द्वारा ही की गयी है।
यह एक अच्छी खबर है। यह स्पेस एक्स का दूसरा प्रयास था, कुछ दिनो पहले राकेट के एक वाल्व मे परेशानी आने के कारण प्रक्षेपण को स्थगित करना पढा़ था।
यह प्रक्षेपण सफल रहा, कोई तकनिकी समस्या नही आयी। राकेट के कक्षा मे पहुंचने के बाद ड्रेगन यान राकेट से सफलता से अलग हो गया और उसने अपने सौर पैनलो फैला दिया। यह इस अभियान मे एक मील का पत्त्थर था। जब यह कार्य संपन्न हुआ तब स्पेस एक्स की टीम के सद्स्यो की उल्लासपूर्ण चित्कार इसके सीधे वेबकास्ट मे स्पष्ट रूप से सुनी जा सकती थी।
आप इस वेबकास्ट को यहां पर देख सकते है। इस अभियान के मुख्य बिंदू इस वीडीयो मे 44:30 मिनिट पर जब मुख्य इंजिन का प्रज्वलन खत्म हुआ, 47:30 मिनिट पर जब दूसरे चरण का ज्वलन प्रारंभ हुआ, तथा 54:00 मिनिट पर ड्रेगन कैपसूल का अलग होना है। डैगन कैपसूल के सौर पैनलो का फैलना 56:20 मिनिट पर है।
इस विडीयो को ध्यान से देखिये और 56:20 मिनिट पर डैगन कैपसूल के सौर पैनलो का फैलते समय स्पेस एक्स टीम के आनंद मे सम्मिलित होईये।
यह प्रक्षेपण महत्वपूर्ण क्यों है ? क्योंकि पहली बार किसी निजी कंपनी द्वारा अंतराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन से एक कैपसूल जोड़ने का प्रयास है। वर्तमान मे नासा के पास अंतरिक्ष मे मानव भेजने की क्षमता नही है, स्पेस एक्स की योजना के तहत वह 2015 तक मानव अभियान के लिये सक्षम हो जायेगा। यदि यह अभियान सफल रहता है तब अनेक निजी कंपनीया अंतराष्ट्रीय अंतरिक्ष केंद्र पर आपूर्ति की दौड़ मे आगे आगे आयेंगी। स्पर्धा से किमतें कम होती है, जब अन्य राष्ट्र अंतराष्ट्रिय अंतरिक्ष केंद्र के बजट मे कटौती कर रहे हो, यह एक बड़ी राहत लेकर आया है। इससे अंतराष्ट्रिय अंतरिक्ष केंद्र की आयू मे बढोत्तरी होगी और अंतरिक्ष मे मानव की स्थायी उपस्थिति की संभावना बढ़ जायेगी।
अंतरिक्ष अभियानो मे यह एक नये दौर की शुरुवात है। शुक्रवार 25 मई को ड्रैगन कैपसूल अंतराष्ट्रिय अंतरिक्ष केंद्र से जुड़ने का प्रयास करेगा। इस केपसुल मे अंतराष्ट्रिय अंतरिक्ष केंद्र के लिये रसद और उपकरण हैं।
स्पेस एक्स और उसके वैज्ञानिको को बधाई!

Thursday, October 8, 2015

रामचंद्र गुहा

रामचंद्र गुहा
जब मुझे ट्विटर से पता चला कि भारत के वित्त मंत्री ने लेखकों पर हमला करते हुए एक ब्लॉग लिखा है तो मैं हैरत में पड़ गयागुड्स एंड सर्विसेज टैक्स अभी अधर में हैभारत में कई जगह किसान सूखे की मार झेल रहे हैंभारत की आर्थिक नीति से जुड़े कई अहम मुद्दों पर बहस चल रही ऐसे वक़्त में भारत के वित्त मंत्री अपना समय और ऊर्जा हम जैसे लेखक मात्र लोगों पर ख़र्च कर रहे हैं?

फिर मैंने ख़ुद अरुण जेटली का ब्लॉग पढ़ा और मेरी हैरत और बढ़ गयीमैं उनसे कभी मिला तो नहीं लेकिन उनके बारे में जो सुना या सार्वजनिक जीवन में देखा है उसके आधार पर वो मुझे वो समझदार और धीरमति वाले आदमी लगते थेलेकिन उनके इस हमले में बदमिज़ाजी झलक रही है.कहीं कहीं तो वो ख़ास लोगों को निशाना बनाते नज़र आए हैं. 

वित्त मंत्री ने दावा किया है कि अपने साथी लेखकों की हत्या का लेखकों द्वारा किया जाने वाला विरोध 'कारखाने में तैयार विद्रोहहै और ये 'भाजपा के प्रति वैचारिक असिहुष्णता का एक उदाहरण है.' 

वित्त मंत्री के अनुसार ये लेखक कांग्रेस या वामपंथी पार्टियों के हाथों की कठपुतली हैं और ये लोग पुरस्कार लौटाकर 'अपरोक्ष रूप से राजनीतिकर रहे हैं.

वित्त मंत्री का बयान इन लेखकों के व्यक्तिव और बुद्धिमत्ता का अपमान सरीखा हैसाहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की शुरुआत कर्नाटक से हुईजहाँ कांग्रेस सरकार प्रसिद्ध विद्वान एमएम कलबुर्गी की हत्या रोकने में विफल रहीसरकार कलबुर्गी के क़ातिलों को पकड़ने में भी अब तक सफल नहीं हुई हैइसके विरोध में स्थानीय लेखकों ने कर्नाटक का राज्य साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटायाएक कन्नड़ लेखक ने अपने बयान में कहा, “ऐस बदले हुए राजनीतिक माहौल में जहाँ कट्टरपंथियों के सामने केंद्र और राज्य सरकारें मूक बनी हुई हैंलेखकतर्कवादी और बुद्धिजीवी भय में जी रहे हैं.”

उसके बाद उदय प्रकाश और नयनतारा सहगल ने अपने (केंद्रीयसाहित्य अकादमी पुरस्कार लौटायेइन लेखकों के इस फ़ैसले की मिली सराहना और मीडिया कवरेज ने दूसरे लेखकों को भी केंद्र और राज्य के अकादमी पुरस्कार लौटाने के लिए प्रेरित कियालेखकों के फ़ैसले स्वप्रेरित थेये'कारखाने में तैयारविद्रोह नहीं हैन ही इसके पीछे कोई संगठित कैंपेन हैलेखकों ने अपने फ़ैसले निजी तौर पर लिए हैं.

अरुण जेटली ने अपने ब्लॉग में एमएम कलबुर्गी और नरेंद्र दाभोलकर का जिक्र किया है लेकिन वो गोविन्द पानसरे का नाम लेना भूल गए हैंमैं मान लेता हूँ कि ये महज संयोग हैबहरहालये विरोध कांग्रेसी साजिश का परिणाम है ये बात इस तथ्य से खारिज हो जाती है कि ये विरोध कांग्रेस शासित राज्य कर्नाटक में शुरू हुएहो सकता है कि कांग्रेस इन विरोधों का इस्तेमाल करने की कोशिश करे लेकिन लेखक भी आम आदमी की तरह विभिन्न राजनीतिक विचारों से जुड़े होते हैं या फिर किसी राजनीति से कोई वास्ता नहीं रखते.

जिन लेखकों ने पुरस्कार लौटाए हैं उनमें से कई को मैं जानता हूँउनमें से कई लम्बे समय से कांग्रेस के कटु आलोचक रहे हैंजेटली ने दावा किया है कि ये सभी लेखक 'पुरानी सत्ता से संरक्षण प्राप्तथे लेकिन सच्चाई इसके उलट हैइनमें से ज़्यादातर लेखक लुटियन दिल्ली से दूर भारत के सुदूर क़स्बों में बेहत सामान्य घरों में अनियमित आय के साथ जीवन गुजारते हैंऐसे लेखकों पर'करियरवादीहोने का आरोप लगाना सरासर नाइंसाफ़ी है.

ये सम्भव है कि इनमें से कुछ लेखकों के व्यवहार में लोगों को फांक दिखेजब 1989 में राजीव गांधी ने सलमान रश्दी की किताब 'द सैटेनिक वर्सेज' पर प्रतिबंध लगा दिया था तब उदारवादी बुद्धिजीवी धर्मा कुमार ने लिखा था, “सेकुलर भारत में ईशनिंदा संज्ञेय अपराध नहीं हो सकताभारत के राष्ट्रपति किसी या सभी धर्मों के रक्षक नहीं हैं.” 
 
ये दुखद था कि तब बहुत से लेखक रश्दी की किताब पर प्रतिबन्ध लगाने के दूरगामी परिणाम का अंदाजा नहीं लगा सके.

अभी हाल ही में जब पश्चिम बंगाल की तात्कालिक लेफ़्ट फ्रंट की सरकार ने तसलीमा नसरीन की किताब पर प्रतिबन्ध लगा दियाउन्हें राज्य से बेदखल कर दिया तब बहुत ही कम उदारवादी बुद्धिजीवियों(वामपंथियों ने तो और भी कमने इस फ़ैसले का सार्वजनिक विरोध कियाइन विफलताओं ने दक्षिणपंथी भाषणबाज़ों के लिए जगह बना दीउसके बाद से ही वो देश के अलग अलग हिस्सों में लेखकों और कलाकारों को धमकाते रहे हैं.

इसी साल जनवरी में मैंने द टेलिग्राफ़ अख़बार में एक लेख (अ फ़िफ्टी फ़िफ्टी डेमोक्रेसीलिखा था जिसमें मैंने तर्क दिया था कि 'बोलने की आज़ादीपर ख़तरा भारत के लिए नयी बात नहीं हैइस ख़तरे के स्रोत अलग अलग रहे हैंजैसे अंग्रेजों के ज़माने के कोलोनियल क़ानूनन्यायपालिका की कमजोरीपुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचारनेताओं की कायरताप्रकाशकों और मीडिया संस्थानों की मिलीभगतनयी चीज़ ये हो रही है कि अब लेखकों की चुन चुन कर हत्या की जा रही हैपहले किताबों पर बैन लगता थाकला प्रदर्शियों में तोड़फोड़ की जाती थीफ़िल्मों को सेंसर किया जाता थाअब लेखकों की बस अपने विचार सामने रखने के लिए हत्या की जा रही है.

जब महाराष्ट्र में दाभोलकर की हत्या हुई तो केंद्र और राज्य दोनों जगह कांग्रेस की सरकार थीजब कलबुर्गी की कर्नाटक में हत्या हुई तो केंद्र में भाजपा और राज्य में कांग्रेस की सरकार थीदोनों हत्याओं में कॉमन बात ये है कि दोनों लेखकों के पीछे हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथी समूह लम्बे से पड़े हुए थेइन हत्याओं के बाद भारत बांग्लादेश का प्रतिरूप लगने लगा है जहाँ हाल ही में कई आज़ाद ख़्याल ब्लॉगर इस्लामी कट्टरपंथियों के हाथों मारे जा चुके हैं.

लेखकों का वर्तमान विरोध इन जघन्य हत्याओं के ख़िलाफ़ हैध्यान देने की बात है कि जिन लेखकों ने पुरस्कार नहीं लौटाए हैं वो भी भारतीय समाज में बढ़ती असिहुष्णता की मुखर आलोचना करते रहे हैंये असिहष्णुता केवल लेखकों केख़िलाफ़ नहीं बढ़ी हैबल्कि आम लोगों के ख़िलाफ़ भी बढ़ी है.

उम्मीद के अनुरूप ही जेटली ने अपने ब्लॉग में पहले की सरकारों के तानाशाही रवैये पर सवाल उठाया हैउन्होंने पूछा है, "इनमें से कितने लेखकों ने इमरजेंसी के दौरान श्रीमती इंदिरा गांधी की तानाशाही के ख़िलाफ़ गिरफ़्तारी दीविरोध प्रदर्शन किये या अपनी आवाज़ उठायी?”

जेटली के सवाल के चार अलग अलग जवाब हैं जो शायद आपस में जुड़े हुए भी हैं 

एकइनमें से कुछ लेखकों का जन्म ही इमरजेंसी के बाद हुआ था

दोइनमें से कुछ लेखकों ने इमरजेंसी का साहसपूर्वक विरोध किया था और उसका ख़मियाजा भी भोगा था. (जेटली को ज़रूर पता होगा कि नयनतारा सहगल ने इंदिरा गांधी की तानाशाही मुखर आलोचना की थी और वो जयप्रकाश नारायण की पत्रिका एवरीमैन में इंदिरा शासन के ख़िलाफ़ लगातार लिखती रही थींउन्हें सबक सिखाने के लिए इंदिरा गांधी ने उनके पति को प्रताड़ित किया था.)  

तीनजिनके मंत्रिमण्डल में जगमोहन और मेनका गांधी जैसे लोग हों उन्हें इमरजेंसी के विरोध का दम्भ नहीं भरना चाहिए 

चारक्योंकि जेटली ख़ुद इमरजेंसी की ज़्यादतियों के शिकार रहे हैं इसलिए उन्हें उन लोगों से सहानुभूति रखनी चाहिए और उनका समर्थन करना चाहिए जो 'बोलने की आज़ादीऔर संविधान प्रदत्त अधिकारों की रक्षा के लिए आवाज़ उठा रहे हैं.

पिछले हफ़्ते मैं बैंगलोर के कुछ युवा अकादमिकों से मिला थाउन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मेरे परिवार वालों को इस बात से डर लगता है कि मैं भाजपाकांग्रेस और तमाम भारतीय प्रधानमंत्रियों की खुली आलोचना करता हूँमैंने उन्हें जवाब दिया कि कई बार उन्हें डर लगता है लेकिन सच्चाई ये है कि इस देश में अंग्रेजी में लिखने वाले लेखकों पर उतना ख़तरा नहीं होता जितना की भारतीय भाषाओं में लिखने वाले लेखकों को होता है

ये महज संयोग नहीं है कि दाभोलकरपानसरे और कलबुर्गी अपनी अपनी मातृभाषाओं में लिखते थेये भी महज संयोग नहीं है कि पुरस्कार लौटाने वाले ज़्यादातर लेखक अंग्रेजी लेखक नहीं हैं.पंजाबी और हिन्दी के ये कविमलयालम और कन्नड़ के उपन्यासकार शायद जेटली जैसों के राडार से बाहर हैंलेकिन इन लेखकों को वो हत्यारे और नाख़ुश लोग जानते हैं और उन्हें निशाना बनाते हैं जो (अफ़सोस अक्सरव्यापक संघ परिवार से कोई न कोई नाता होने का दावा करते हैंजिस परिवार के जेटली भी एक सदस्य हैं.


रामचंद्र गुहा बैंगलोर स्थित इतिहासकार हैंउनकी हालिया किताबें 'गाँधी बिफ़ोर इंडिया' और 'इंडिया ऑफ्टर गाँधी' चर्चित रही हैं. 

इंडियन एक्सप्रेस से साभार. मूल अंग्रेजी लेख यहाँ पढ़ें. अनुवाद: रंगनाथ सिंह.